पारिस्थितिकी और पर्यावरण

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 पारिस्थितिकी

 पर्यावरण और मानव प्रगति

 पर्यावरण और मानव बस्तियाँ

 वर्षा और मानवीय प्रयास

 प्राचीन काल में पर्यावरण संबंधी चेतना








1. पारिस्थितिकी

अंग्रेजी शब्द 'इकॉलाजी' यह अपेक्षाकृत नया विज्ञान है। हाल तक इसे जीव विज्ञान की शाखा समझा जाता था, लेकिन अब यह स्वतंत्र विषय माना जाता है। फिर भी, यह जीव विज्ञान से घनिष्ठ संबंध रखता है। यह विषय पौधों, पशुओं और मानवों जैसे अनेक जीवधारियों के बीच पारस्परिक प्रभाव पर विचार करता है।

प्राचीन काल में मनुष्य जंगली पैदावार को एकत्रित कर तथा पक्षियों और पशुओं का शिकार कर जीवनयापन करता था। लेकिन औद्योगिक युग में मनुष्य का पौधों और पशुओं के साथ संबंध बहुत बदल गया है और अब बहुत से जीव-जंतु मनुष्य के प्रयत्न से सुरक्षित हैं।


2. पर्यावरण और मानव प्रगति


प्राकृतिक तत्त्वों में मिट्टी, हवा और पानी हैं जिनके सहारे पशु, पौधे और मनुष्य जीवित रहते हैं। मानवनिर्मित पर्यावरण से भोजन, आश्रय और परिवहन की सुविधाएँ मिलती हैं, जैसे सड़कें, पुल, बाँध और आवास की तरह प्रयोग में आनेवाली अनेक प्रकार की संरचनाएँ। पर्यावरण के अंतर्गत ग्रामीण, शहरी, सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अवस्थाएँ भी आती हैं।




पर्यावरण मानवीय प्रयासों को दिशा प्रदान करता है। लेकिन इसे पर्यावरण नियतिवाद बतलाना गलत होगा, क्योंकि मानवीय प्रयास पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं। प्राचीन काल से ही मनुष्य अपनी प्रगति के लिए प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग पर निर्भर रहा है। भारत में प्राचीनतम मानव बस्तियों की स्थापना प्राय: पहाड़ी, पठारी और जंगली क्षेत्रों में झीलों और नदियों के नजदीक हुई जहाँ लोग शिकार करने के लिए पत्थर और हड्डी के औज़ार बना सकते थे। इन औज़ारों से कृषि के लिए ज़मीन भी जोती जाती थी। साथ ही, आवासों को खड़ा करने हेतु समतल जमीन तैयार की जाती थी।


3. पर्यावरण और मानव बस्तियाँ

गंगा के मैदान में जंगलों की कटाई और कड़ी कछारी भूमि की जुताई के बिना बड़ी कृषक बस्तियों की स्थापना होनी असंभव थी। यह सब 500 ई० पू० से लोहे की कुल्हाड़ी और लोहे के फाल के प्रयोग से ही प्रभावकारी ढंग से संभव हो सका। इसके लिए लोहे की खानों की खोज करना और निष्कर्षण की प्रौद्योगिकी तथा लौहशिल्प की तकनीक को विकसित करना जरूरी था, क्योंकि मध्य गंगा के मैदान की कड़ी कछारी मिट्टी, विंध्य क्षेत्र की लाल मिट्टी और दकन तथा पश्चिमी भारत की कपास पैदा करनेवाली काली मिट्टी की कारगर जुताई के लिए लोहे के फालों की आवश्यकता थी।



             आजकल पर्यावरण के संरक्षण पर बल दिया जाता है। फिर भी, जंगलों की कटाई बावजूद सोलहवीं-सत्रहवीं सदियों तक दोआब के जंगल बरकरार रहे और वहाँ के पशुओं के शिकार होते रहे। जंगलों की भारी कटाई से होने वाला पारिस्थितिकीय परिवर्तन आधुनिक समय की घटना है। बहरहाल, मानव समाज का प्रारंभिक विकास वनस्पतियों और पशुओं की कीमत पर हुआ। लेकिन जबसे मनुष्य ने वनस्पतियों का उत्पादन और पशुपालन शुरू किया, इससे दोनों की वृद्धि हुई । मानव बस्तियों के स्थान और आकार पर्यावरण संबंधी घटकों द्वारा निर्धारित होते थे। वासस्थल का चुनाव मिट्टी और जलवायु पर बहुत हद तक निर्भर करता था। अनुकूल वर्षावाले क्षेत्र, जहाँ नदियाँ, झीलें, जंगल, पहाड़ियाँ, धातुएँ और उपजाऊ मिट्टियाँ होती थीं, लोगों को बसने के लिए आकर्षित करते थे। इसके विपरीत जल संसाधन रहित शुष्क मरुस्थल लोगों को वहाँ बसने से हतोत्साह करते थे। इस प्रकार गंगा के मैदान मानव बस्ती के आकर्षक क्षेत्र बन गए। इनमें 500 ई० पू० के बाद के काल में बहुसंख्यक और उसके पहले बहुत कम बस्तियाँ दिखती हैं। उसी काल में, दोआब और मध्य गंगा के मैदानों में बहुत-से नगर मिलते हैं। सड़कों और रेलमार्गों की तरह नदियाँ परिवहन के मार्ग बनीं। इनकी बाढ़े जंगली तटों को साफ कर देती थीं और वहाँ फिर से जंगलों को उगने से रोकती थीं। इसके अतिरिक्त, वे कृषकों के लिए न सिर्फ भूमि तैयार करती थीं, बल्कि उस भूमि की सिंचाई भी करती थीं।

          लगभग 2500 ई० पू० में नदियों के मार्गों में दिशा परिवर्तन होने से मानव बस्तियों पर प्रभाव पड़ा। घग्घर - हकरा की समरूपा नदी सरस्वती यमुना और सतलज से मिल गई, और तीनों ने मिलकर हड़प्पा संस्कृति के विकास में योगदान किया। लेकिन 1700 ई० पू० में सतलज और संभवतः यमुना पूरब की ओर बढ़ गईं। इसका हड़प्पा संस्कृति की बस्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

          नदियों के संगम प्रारंभिक मानव बस्तियों के रूप में उभरे। नदियों के संगम ने जंगलों का प्रभावी ढंग से सफाया किया और मनुष्य के बसने में सहायता की। यह भारत के प्रथम महानगर पाटलिपुत्र के विषय में कहा जा सकता है। पाटलिपुत्र गंगा और सोन के संगम पर स्थित था। उत्तर में गंडक और घाघरा नदियाँ गंगा से मिलती थीं और पुनपुन नदी दक्षिण में मिलती थी। ये संगम स्थल शहर से ज्यादा दूर नहीं थे। तीन दिशाओं में नदियों की उपस्थिति ने पाटलिपुत्र को प्रायः जल-दुर्ग बना दिया और इसे महान राजधानी बनने का गौरव भी प्राप्त हुआ । यद्यपि पाटलिपुत्र गंगा और सोन के संगम पर अवस्थित था, तथापि सोन नदी बाद में पश्चिम की ओर खिसक गई। प्रागैतिहासिक काल में पाटलिपुत्र से उत्तर गंगातट पर स्थित चिरौद महत्त्वपूर्ण हो गया, क्योंकि यह वास्तव में गंगा और घाघरा के संगम पर अवस्थित था। ऐसा लगता हैं कि इसके आसपास के क्षेत्र में जंगल थे। इसका संकेत चिरौंद में प्राप्त नवपाषाणयुगीन उपकरणों से मिलता है। इनमें अधिकांश हरिण की सींगों के बने हैं जिससे संकेत मिलता है कि निकटवर्ती जंगल में हरिणों का शिकार होता था।

4. वर्षा और मानवीय प्रयास

वैज्ञानिकों के अनुसार, तीसरी सहस्राब्दी ई० पू० में हड़प्पा संस्कृति के क्षेत्र में यथेष्ट वर्षा होती थी। लेकिन जैसे-जैसे वर्षा की मात्रा में कमी आने लगी, वैसे-वैसे हड़प्पा संस्कृति पर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा। महाराष्ट्र के इनामगाँव से प्राप्त वनस्पतियों और पशुओं के अवशेषों से 1000 ई० पू० में अत्यंत शुष्क अवस्था की शुरुआत का संकेत मिलता है। इससे कृषकों को अपना घर छोड़कर पशुचारी खानाबदोशी जीवन अपनाना पड़ा।  वर्षा निश्चित रूप से मानव समाज को खेती करने और बस्तियाँ बसाने में सहयोग देती थी। लेकिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में भारी वर्षा लोगों को नियमित काम करने से रोक देती थी। गौतम बुद्ध प्रतिवर्ष वर्षाकाल में चार माह के लिए उपदेश देने एवं पर्यटन करने का कार्यक्रम स्थगित करके किसी स्थान पर वर्षावास करते थे। वे वर्षावास के लिए राजगृह, वैशाली और श्रावस्ती जैसे स्थानों में ठहर जाते थे। कहा जाता है कि उन्होंने श्रावस्ती में 26 वर्षावास किए। यह धारणा अभी भी कुछ लोगों को प्रभावित करती है और भादो महीने, अर्थात् जुलाई-अगस्त, में विवाह संपन्न नहीं होते हैं।  कुछ अन्य प्राकृतिक संकट भारी वर्षा से कहीं अधिक अनर्थकारी होते हैं। इनके अंतर्गत बाढ़, तूफान और भूकंप का उल्लेख किया जा सकता है। हम प्राक्- मौर्ययुगीन अकाल के बारे में सुनते हैं, जिसके फलस्वरूप कुछ जैन धर्मावलंबी मगध छोड़कर दक्षिण भारत चले गए थे।


5. प्राचीन काल में पर्यावरण संबंधी चेतना


प्राचीन भारत में नदियाँ ईश्वरतुल्य मानी जाती थीं। ऋग्वेद में सरस्वती नदी को देवी के रूप में चित्रित किया गया है। लेकिन वैदिकोत्तर काल में गंगा को मातृदेवी कहा गया और ऐसी परंपराएँ आज तक बरकरार हैं। चूँकि पृथ्वी और जल दोनों से वनस्पतियों और पशुओं का संपोषण होता था, इसलिए इन्हें माता का दर्जा दिया गया। हालाँकि इनमें से किसी को सुरक्षित रखने के लिए योजनाएँ बनाई गई हों, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता है।

अनेक वृक्ष, जिनमें नीम, पीपल, वट, शमी और तुलसी शामिल हैं, पवित्र माने जाते हैं। जड़ी-बूटियों के विषय में भी, जिनमें घास शामिल हैं, यही बात लागू होती है। औषधीय विशेषताओं के कारण इन सबका महत्त्व है। अतएव इनकी सुरक्षा की जाती है और इनकी पूजा होती है। बड़े और छोटे वृक्षों के संरक्षण की कामना अनेक प्राचीन ग्रंथों में की गई है। वृक्ष संरक्षण की अभिलाषा आज तक बरकरार है। आज भी बड़े-बड़े यज्ञों और छोटे-छोटे धार्मिक अनुष्ठानों के अंत में पुरोहित तथा उपासक जंगली वृक्षों और सामान्य वनस्पतियों की उन्नति तथा शांति की कामना करते हैं। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अधिकांश प्राचीन मूलग्रंथ गोहत्या की निंदा करते हैं।

                   पारिस्थितिकी और पर्यावरण की जानकारी प्राचीन भारत के अध्ययन में सहायक हो सकती है। यह खासकर प्रागैतिहासिक काल के अध्ययन में उपयोगी हो सकती है। लेकिन प्रकृति के विरुद्ध मानव के संघर्ष को रोक कर मानव समाज का विकास नहीं हो सकता है। प्राचीनकाल में इस संघर्ष का लक्ष्य मुख्यतः वनस्पतियों और पशुओं के विरुद्ध निदेशित था। जैसे ही इन जीवों पर नियंत्रण हुआ, वैसे ही वनस्पतियों और पशुओं दोनों की संख्या बढ़ाने के लिए प्रयास होने लगे । इतिहास मुख्यतः समय और स्थान के संदर्भ में मनुष्यों के बीच पारस्परिक संबंधों पर विचार करता है। लेकिन इतिहास का सही निर्माण तब तक नहीं हो सकता है जब तक इतिहासकार मानवीय प्रयासों और प्राकृतिक शक्तियों के क्रियाकलापों के बीच होते रहे पारस्परिक प्रभाव पर विचार नहीं करते हैं।


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