1. स्रोतों के प्रकार
2. इतिहास का निर्माण
दक्षिण भारत में पत्थर के मंदिर और पूर्वी भारत में ईंटों के विहार आज भी धरातल पर देखने को मिलते हैं, और उस युग का स्मरण कराते हैं जब देश में भारी संख्या में भवनों का निर्माण हुआ। परंतु इन भवनों के अधिकांश अवशेष सारे देश में बिखरे अनेकानेक टीलों के नीचे दबे हुए हैं। टीला धरती की सतह के उस उभरे हुए भाग को कहते हैं जिसके नीचे पुरानी बस्तियों के अवशेष रहते हैं। यह कई प्रकार का हो सकता है: एकल-संस्कृतिक, मुख्य-संस्कृतिक और बहु-संस्कृतिक । एकल-संस्कृतिक टीलों में सर्वत्र एक ही संस्कृति दिखाई देती है। कुछ टीले केवल चित्रित धूसर मृद्भांड अर्थात् पेंटेड ग्रे वेअर (पी० जी० डब्ल्यू०) संस्कृति के द्योतक हैं, कुछ सातवाहन संस्कृति के, और कुछ कुषाण संस्कृति के मुख्य संस्कृतिक टीलों में एक संस्कृति की प्रधानता रहती है और अन्य संस्कृतियाँ जो पूर्वकाल की भी हो सकती हैं और उत्तर काल की भी, विशेष महत्त्व की नहीं होतीं। बहु-संस्कृतिक टीलों में उत्तरोत्तर अनेक संस्कृतियाँ पाई जाती हैं जो कभी-कभी एक दूसरे के साथ-साथ चलती हैं। रामायण और महाभारत की भाँति, खोदे गए टीले का उपयोग हम संस्कृति के भौतिक और अन्य पक्षों के क्रमिक स्तरों को उजागर करने के लिए कर सकते हैं।
टीले की खुदाई दो तरह से की जा सकती है - अनुलंब या क्षैतिज। अनुलंब उत्खनन का अर्थ है सीधी खड़ी लंबवत् खुदाई करना जिससे कि विभिन्न संस्कृतियों का कालक्रमिक ताँता उद्घाटित हो। यह सामान्यतः स्थल के कुछ भाग में ही सीमित रहता है। क्षैतिज उत्खनन का अर्थ है सारे टीले की या उसके बृहत भाग की खुदाई । इस तरह की खुदाई से हम उस स्थल की काल विशेष की संस्कृति का पूर्ण आभास पा सकते हैं।
अधिकांश स्थलों की अनुलंब खुदाई होने के कारण उनसे हमें भौतिक संस्कृति का अच्छा-खासा कालानुक्रमिक सिलसिला मिल जाता है। क्षैतिज खुदाइयाँ खर्चीली होने के कारण बहुत कम की गई हैं। फलस्वरूप उत्खननों से प्राचीन भारतीय इतिहास की अनेक अवस्थाओं के भौतिक जीवन का पूर्ण और समग्र चित्र नहीं मिल पाता। जिन टीलों का उत्खनन हुआ है उनके भी पुरावशेष विभिन्न अनुपातों में ही सुरक्षित हैं। सूखी जलवायु के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पश्चिमोत्तर भारत के पुरावशेष अधिक सुरक्षित बने रहे, परंतु मध्य गंगा के मैदान और डेल्टाई क्षेत्रों की नम और आर्द्र जलवायु में लोहे के औज़ार भी संक्षारित हो जाते हैं और कच्ची मिट्टी से बने भवनों के अवशेषों को खोजना कठिन होता है। नम और जलोढ़ क्षेत्रों में तो पक्की ईंटों और पत्थर के भवनों के काल में आकर ही हमें उत्कृष्ट और प्रचुर अवशेष मिल पाते हैं।
पश्चिमोत्तर भारत में हुए उत्खननों से ऐसे नगरों का पता चलता है जिनकी स्थापना लगभग 2500 ई० पू० में हुई थी। इसी प्रकार उत्खननों से हमें गंगा की घाटी में विकसित भौतिक संस्कृति के बारे में भी जानकारी मिली है। इससे पता चलता है कि उस समय के लोग जिन बस्तियों में रहते थे उनका ढाँचा कैसा था, वे किस प्रकार के मृद्भांड उपयोग में लाते थे, किस प्रकार के घरों में रहते थे, भोजन में किन अनाजों का इस्तेमाल करते थे और कैसे औज़ारों या हथियारों का प्रयोग करते थे। दक्षिण भारत के कुछ लोग मृत व्यक्ति के शव के साथ औजार, हथियार, मिट्टी के बरतन आदि चीजें भी कब्र में गाड़ते थे और इसके ऊपर एक घेरे में बड़े-बड़े पत्थर खड़े कर दिए जाते थे। ऐसे स्मारकों को महापाषाण (मेगालिथ) कहते हैं, हालाँकि सभी महापाषाण इस श्रेणी में नहीं आते। इनकी खुदाई बतलाती है कि लौह युग की शुरुआत होने पर दकन के लोग किस प्रकार का जीवन व्यतीत करते थे। जिस विज्ञान के आधार पर पुराने टीलों का क्रमिक स्तरों में विधिवत उत्खनन किया जाता है और प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है, उसे पुरातत्त्व (आर्किऑलजि ) कहते हैं।
उत्खनन और अन्वेषण के फलस्वरूप प्राप्त भौतिक अवशेषों का विभिन्न प्रकार से वैज्ञानिक परीक्षण किया जाता है। रेडियो कार्बन काल निर्धारण की विधि से यह पता लगाया जाता है कि वे किस काल के हैं। रेडियो कार्बन या कार्बन 14 (C14) कार्बन का रेडियोधर्मी समस्थानिक ( आइसोटोप ) है जो सभी प्राणवान वस्तुओं में विद्यमान होता है। सभी रेडियोधर्मी पदार्थों की तरह इसका निश्चित / समान गति से क्षय होता है। जब कोई वस्तु जीवित रहती है तो C" के क्षय की प्रक्रिया के साथ हवा और भोजन की खुराक से उस वस्तु में C" का समन्वय भी होता रहता है। परंतु जब वस्तु निष्प्राण हो जाती है तब इसमें विद्यमान C" के क्षय की प्रक्रिया समान गति से जारी रहती है लेकिन यह हवा और भोजन से C" लेना बंद कर देती है। किसी प्राचीन वस्तु में विद्यमान C14 में आई कमी को माप कर उसके समय का निर्धारण किया जा सकता है।
1. स्रोतों के प्रकार
1.1. सिक्के
अनेक सिक्के और अभिलेख धरातल पर भी मिले हैं, पर इनमें से अधिकांश ज़मीन को खोदकर निकाले गए है। सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (न्यूमिस्मेटिक्स) कहते हैं। आजकल की तरह प्राचीन भारत में कागज़ की मुद्रा का प्रचलन नहीं था, पर धातुधन या धातुमुद्रा (सिक्का) चलता था। पुराने सिक्के तांबे, चांदी, सोने और सीसे के बनते थे। पकाई गई मिट्टी के बने सिक्कों के साँचे बड़ी संख्या में मिले हैं। इनमें से अधिकांश साँचे कुषाण काल के अर्थात् ईसा की आरंभिक तीन सदियों के हैं। गुप्तोत्तर काल में ये साँचे लगभग लुप्त हो गए।
प्राचीन काल में आज जैसी बैंकिंग प्रणाली नहीं थी, इसलिए लोग अपना पैसा मिट्टी और कांसे के बरतनों में बड़ी हिफ़ाज़त से जमा रखते थे ताकि मुसीबत के दिनों में उस बहुमूल्य निधि का उपयोग कर सकें। ऐसी अनेक निधियाँ, जिनमें न केवल भारतीय सिक्के हैं बल्कि रोमन साम्राज्य जैसी विदेशी टकसालों में ढाले गए सिक्के भी हैं, देश के अनेक भागों में मिली हैं। ये निधियाँ अधिकतर कोलकाता, पटना, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, मुंबई और चेन्नई के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। बहुत- से भारतीय सिक्के नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संग्रहालयों में भी देखने को मिलते हैं। चूँकि ब्रिटेन ने भारत पर लंबे अरसे तक राज किया, इसलिए ब्रिटिश अधिकारी भी अपने निजी तथा सार्वजनिक संग्रहालयों में बहुत सारे भारतीय सिक्के ले गए।
1.2. अभिलेख
सिक्कों से भी कहीं अधिक महत्त्व के हैं अभिलेख । इनके अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (एपिग्रेफी) कहते हैं, और इनकी तथा दूसरे पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपिशास्त्र (पेलिॲग्रेफी ) कहते हैं। अभिलेख मुहरों, प्रस्तरस्तंभों, स्तूपों, चट्टानों और ताम्रपत्रों पर मिलते हैं तथा मंदिर की दीवारों और ईंटों या मूर्तियों पर भी । समग्र देश में आरंभिक अभिलेख पत्थरों पर खुदे मिलते हैं। किंतु ईसा के आरंभिक शतकों में इस काम में ताम्रपत्रों का प्रयोग आरंभ हुआ। तथापि पत्थर पर अभिलेख खोदने की परिपाटी दक्षिण भारत में व्यापक स्तर पर जारी रही। दक्षिण भारत में मंदिर की दीवारों पर भी स्थायी स्मारकों के रूप में भारी संख्या में अभिलेख खोदे गए हैं।
सिक्कों की तरह अभिलेख भी देश के विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। सबसे अधिक अभिलेख मैसूर में मुख्य पुरालेखशास्त्री के कार्यालय में संगृहीत हैं। आरंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में है और ये ईसा पूर्व तीसरी सदी के हैं। अभिलेखों में संस्कृत भाषा ईसा की दूसरी सदी से मिलने लगती है, और चौथी-पाँचवी सदी में इसका सर्वत्र व्यापक प्रयोग होने लगा।
हड़प्पा संस्कृति के अभिलेख अभी तक पढ़े नहीं जा सके हैं। ये संभवत: ऐसी किसी भावचित्रात्मक लिपि में लिखे गए हैं जिसमें विचारों और वस्तुओं को चित्रों के रूप में व्यक्त किया जाता था। अशोक के शिलालेख ब्राह्मी लिपि में है। यह लिपि बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी। उसके कुछ शिलालेख खरोष्ठी लिपि में भी हैं जो दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी, लेकिन पश्चिमोत्तर भाग के अलावा भारत में भिन्न प्रदेशों में ब्राह्मी लिपि का ही प्रचार रहा। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अशोक के शिलालेखों में यूनानी और आरामाइक लिपियों का भी प्रयोग हुआ है। गुप्तकाल के अंत तक देश की प्रमुख लिपि ब्राह्मी ही रही। यदि ब्राह्मी और इसकी विभिन्न शैलियों का भली-भाँति ज्ञान हो जाए तो कोई भी पुरालेखविद् ईसा की आठवीं सदी तक के अधिकांश पुरालेखों को पढ़ सकता है। परंतु इसके बाद इस लिपि की प्रादेशिक शैलियों में भारी अंतर आ गया और इन्हें अलग-अलग नाम दे दिए गए।
सबसे पुराने अभिलेख हड़प्पा संस्कृति की मुहरों पर मिलते हैं। ये लगभग 2500 ई० पू० के हैं। इनका पढ़ना अब तक संभव नहीं हुआ है। देश के सबसे पुराने अभिलेख जो पढ़े जा चुके हैं, वे हैं ईसा पूर्व तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख । चौदहवीं सदी में फिरोज़शाह तुगलक को अशोक के दो स्तंभलेख मिले थे, एक मेरठ में और दूसरा हरियाणा के टोपरा नामक स्थान में उसने इन्हें दिल्ली मंगवाया और अपने राज्य के पंडितों से पढ़वाने का प्रयास किया, पर कोई भी पंडित पढ़ नहीं पाया। अठारहवीं सदी के अंतिम चरण में अंग्रेजों ने इन्हें पढ़ने की कोशिश की तो उन्हें भी इसी कठिनाई का सामना करना पड़ा। इन अभिलेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम 1837 में सफलता मिली जेम्स प्रिंसेप को जो उस समय बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में ऊँचे पद पर थे।
1.3. साहित्यिक स्रोत
यद्यपि प्राचीन भारत के लोगों को लिपि का ज्ञान 2500 ई० पू० में भी था, परंतु हमारी प्राचीनतम उपलब्ध पांडुलिपियाँ ईसा की चौथी सदी के पहले की नहीं हैं और ये भी मध्य एशिया से प्राप्त हुई हैं। भारत में पांडुलिपियाँ भोजपत्रों और तालपत्रों पर लिखी मिलती हैं, परंतु मध्य एशिया में जहाँ भारत से प्राकृत भाषा फैल गई थी, ये पांडुलिपियाँ मेषचर्म तथा काष्ठफलकों पर भी लिखी गई हैं। इन्हें हम भले ही अभिलेख कह दें, परंतु हैं ये एक प्रकार की पांडुलिपियाँ हीं। उन दिनों मुद्रण कला का आविष्कार नहीं हुआ था, इसलिए ये पांडुलिपियाँ मूल्यवान समझी जाती थीं। वैसे तो समूचे भारत में संस्कृत की पुरानी पांडुलिपियाँ मिली हैं, परंतु इनमें से अधिकतर दक्षिण भारत, कश्मीर और नेपाल से प्राप्त हुई हैं। आजकल अधिकांश अभिलेख संग्रहालयों में और पांडुलिपियाँ पुस्तकालयों में संचित-सुरक्षित हैं। अधिकांश प्राचीन ग्रंथ धार्मिक विषयों पर हैं। हिंदुओं के धार्मिक साहित्य में वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि आते हैं। यह साहित्य प्राचीन भारत की सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति पर काफी प्रकाश डालता है। किंतु देश और काल के संदर्भ में इसका उपयोग करना बड़ा ही कठिन है।
लेकिन अथर्ववेद, यजुर्वेद, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों को 1000-500 ई० पू० के लगभग का माना जाएगा। प्रायः सभी वैदिक ग्रंथों में क्षेपक मिलता है जो सामान्यतः आदि या अंत में रहता है। यों ग्रंथ के बीच में भी क्षेपक का पाया जाना कोई असाधारण बात नहीं हैं। ऋग्वेद में मुख्यतः देवताओं की स्तुतियाँ हैं, परंतु बाद के वैदिक साहित्य में स्तुतियों के साथ-साथ कर्मकांड, जादूटोना और पौराणिक आख्यान भी हैं। हाँ, उपनिषदों में हमें दार्शनिक चिंतन मिलते हैं।
वैदिक मूलग्रंथ का अर्थ समझ में आए इसके लिए वेदांगों अर्थात् वेद के अंगभूत शास्त्रों का अध्ययन आवश्यक था। ये वेदांग हैं शिक्षा (उच्चारण - विधि), कल्प (कर्मकांड), व्याकरण, निरूक्त (भाषाविज्ञान), छंद और ज्योतिष । इनमें से प्रत्येक शास्त्र के चतुर्दिक प्रचुर साहित्य विकसित हुए हैं। यह साहित्य गद्य में नियम रूप में लिखा गया है। संक्षिप्त होने के कारण ये नियम सूत्र कहलाते हैं। सूत्र लेखन का सबसे विख्यात उदाहरण है पाणिनि का व्याकरण जो 450 ई० पू० के आसपास लिखा गया था। व्याकरण के नियमों का उदाहरण देने के क्रम में पाणिनि ने अपने समय के समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर अमूल्य प्रकाश डाला।
महाभारत, रामायण और प्रमुख पुराणों का अंतिम रूप से संकलन 400 ई० के आसपास हुआ प्रतीत होता है। इनमें महाभारत, जो व्यास की कृति माना जाता है, संभवत: दसवीं सदी ईसा पूर्व से चौथी सदी ईसवी तक की स्थिति का आभास देता है। पहले इसमें केवल 8800 श्लोक थे और इसका नाम जयस था जिसका अर्थ है विजय संबंधी संग्रह ग्रंथ । बाद में यह बढ़कर 24,000 श्लोक का हो गया और भारत नाम से प्रसिद्ध हुआ क्योंकि इसमें प्राचीनतम वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा है। अंतत: इसमें एक लाख श्लोक हो गए और तदनुसार यह शतसाहस्री संहिता या महाभारत कहलाने लगा। इसमें कथोपकथाएँ हैं, वर्णन हैं और उपदेश भी हैं। इसकी मूल कथा, जो कौरवों और पांडवों के युद्ध की है, उत्तर वैदिक काल की हो सकती है। इसके विवरणात्मक अंश का उपयोग वेदोत्तर काल के संदर्भ में किया जा सकता है, और उपदेशात्मक अंश का सामान्यतः मौर्योत्तर काल और गुप्तकाल के संदर्भ में। इसी प्रकार, वाल्मीकि रामायण में मूलत: 6000 श्लोक थे, जो बढ़कर 12,000 श्लोक हो गए और अंततः 24,000 श्लोक । यद्यपि यह महाकाव्य महाभारत की अपेक्षा अधिक ठोस है, तथापि इसमें भी कुछ ऐसे उपदेशात्मक भाग हैं जो बाद में जोड़ दिए गए हैं। इसकी रचना संभवत: ईसा पूर्व पाँचवी सदी में शुरू हुई। तब से यह पाँच अवस्थाओं से गुजर चुकी है और इसकी पाँचवी अवस्था तो ईसा की बारहवीं सदी में आई है। मिलाजुलाकर इसकी रचना महाभारत के बाद हुई प्रतीत होती है।
जैनों और बौद्धों के धार्मिक ग्रंथों में ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं का उल्लेख मिलता है। प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ पालि भाषा में लिखे गए थे। यह भाषा मगध यानी दक्षिण बिहार में बोली जाती थी। इन ग्रंथों को अंततः संकलित तो किया गया श्रीलंका में, ईसा पूर्व दूसरी सदी में, पर इनके धर्म- शिक्षात्मक अंश बुद्ध के समय की स्थिति बताते हैं। इन ग्रंथों में हमें न केवल बुद्ध के जीवन के बारे में, बल्कि उनके समय के मगध, उत्तर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई शासकों के बारे में भी जानकारी मिलती है। बौद्धों के धार्मिकेतर साहित्य में सबसे महत्त्वपूर्ण और रोचक हैं गौतम बुद्ध के पूर्वजन्मों की कथाएँ। ऐसा विश्वास था कि गौतम के रूप में जन्म लेने से पहले बुद्ध 550 से भी अधिक पूर्वजन्मों से गुजरे थे और इनमें से कई जन्मों में उन्होंने पशु के जीवन पाए थे। पूर्वजन्मों की वे कथाएँ जातक कहलाती हैं और प्रत्येक कथा एक प्रकार की लोक कथा है। ये जातक ईसा पूर्व पाँचवी सदी से दूसरी सदी ईसवी सन् तक की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर बहुमूल्य प्रकाश डालते हैं। प्रसंगवश ये कथाएँ बुद्धकालीन राजनीतिक घटनाओं की भी जानकारी देती हैं।
जैन ग्रंथों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। ईसा की छठी सदी में गुजरात के वलभी नगर में इन्हें अंतिम रूप से संकलित किया गया था। फिर भी इन ग्रंथों में ऐसे अनेक अंश हैं जिनके आधार पर हमें महावीरकालीन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायता मिली है। जैन ग्रंथों में व्यापार और व्यापारियों के उल्लेख बार-बार मिलते हैं।
1.4. विदेशी विवरण
विदेशी विवरणों को देशी साहित्य का अनुपूरक बनाया जा सकता है। पर्यटक बनकर या भारतीय धर्म को अपनाकर अनेक यूनानी, रोमन और चीनी यात्री भारत आए और अपनी आँखों देखे भारत के विवरण लिख छोड़े। ध्यान देने योग्य बात है कि भारतीय स्रोतों में सिकंदर के हमले की कोई जानकारी नहीं मिलती। उसके भारतीय कारनामों के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए हमें पूर्णतः यूनानी स्रोतों पर आश्रित रहना पड़ता है।
यूनानी लेखकों ने 326 ई० पू० में भारत पर हमला करने वाले सिकंदर महान के समकालीन के रूप में सैंड्रोकोटस के नाम का उल्लेख किया है। यह सिद्ध किया गया है कि यूनानी विवरणों का यह सैंड्रोकोटस और चंद्रगुप्त मौर्य, जिनके राज्यारोहण की तिथि 322 ई० पू० निर्धारित की गई है, एक ही व्यक्ति थे। यह पहचान प्राचीन भारत के तिथिक्रम के लिए सुदृढ़ आधारशिला बन गई। चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में दूत बनकर आए मेगास्थनीज की इंडिका उन उद्धरणों के रूप में ही सुरक्षित है जो अनेक प्रख्यात लेखकों की रचनाओं में आए हैं। इन उद्धरणों को एक साथ मिलाकर पढ़ने पर न केवल मौर्य शासन व्यवस्था के बारे में ही बल्कि मौर्यकालीन सामाजिक वर्गों और आर्थिक क्रियाकलापों के बारे में भी मूल्यवान जानकारी मिलती है। इंडिका अतिरंजित बातों से मुक्त नहीं है, पर ऐसी बातें तो अन्यान्य प्राचीन विवरणों में भी पाई जाती हैं। ईसा की पहली और दूसरी सदियों के यूनानी और रोमन विवरणों में भारतीय बंदरगाहों के उल्लेख मिलते हैं, और भारत तथा रोमन साम्राज्य के बीच होने वाले व्यापार की वस्तुओं की भी चर्चा मिलती है।
ऐतिहासिक दृष्टि
प्राचीन भारतीयों पर आरोप लगाया गया है कि उनमें ऐतिहासिक दृष्टि का अभाव था। यह तो स्पष्ट है कि उन्होंने वैसा इतिहास नहीं लिखा जैसा आजकल लिखा जाता है, और न वैसा ही लिखा जैसा यूनानियों ने लिखा है। फिर भी, हमें पुराणों में एक प्रकार का इतिहास अवश्य मिलता है। पुराणों की संख्या अठारह है; अठारह पारंपरिक पद हैं। विषयवस्तु की दृष्टि से पुराण विश्वकोश जैसे हैं, पर इनमें गुप्तकाल के आरंभ तक का राजवंशी इतिहास आया है। इनमें घटना के स्थलों का उल्लेख है और कभी-कभी घटना के कारणों और परिणामों का विवेचन भी किया गया है, परंतु यथार्थ में ये घटनाएँ विवरण लिखे जाने के काफी पहले हो चुकी थीं। इन पुराणों के लेखक परिवर्तन की धारणा से अनभिज्ञ थे, जो इतिहास का सारतत्त्व होती हैं। पुराणों में चार युग बताए गए हैं- कृत, त्रेता, द्वापर और कलि । इनमें हर युग अपने पिछले युग से घटिया बताया गया है और कहा गया है कि एक युग के बाद जब दूसरा युग आरंभ होता है तब नैतिक मूल्यों और सामाजिक मानदंडों का अधःपतन होता है। काल और स्थान, जो इतिहास के महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं, उनका महत्त्व इनमें बताया गया है। महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है कि देश और काल के बदलने से अधर्म धर्म हो जाता है और धर्म अधर्म होता है।
2. इतिहास का निर्माण
अब तक प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक दोनों तरह के बहुत सारे पुरास्थलों की खुदाई और छानबीन की जा चुकी है, परंतु प्राचीन भारतीय इतिहास की मुख्य धारा में उसके परिणामों को स्थान नहीं मिल पाया । इसका बोध तब तक नहीं हो सकता, जब तक प्रागैतिहासिक पुरातत्त्व के परिणामों की ओर ध्यान नहीं दिया जाएगा। इतिहासकालीन पुरातत्त्व भी उतने ही महत्त्व का है। यद्यपि प्राचीन इतिहास के काल के 150 से भी अधिक पुरास्थलों की खुदाई हो चुकी है, तथापि प्राचीन कालों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रवृतियों के अध्ययन में उन खुदाइयों की प्रासंगिता का विवेचन सामान्य पुस्तकों में नहीं किया गया है। यह काम परम आवश्यक है; प्राचीन भारत के नगरीय इतिहास के संदर्भ में तो यह और भी जरूरी है। अब तक अधिकांशतः बौद्ध और कुछेक ब्राह्मणिक स्थलों के महत्त्व रेखांकित किए गए हैं, किंतु यह आवश्यक है कि धार्मिक इतिहास के अध्ययन में आर्थिक और सामाजिक पक्षों पर ध्यान दिया जाए।
प्राचीन इतिहास अभी तक मुख्यतः देशी या विदेशी साहित्यिक स्रोतों के आधार पर ही रचा गया है। सिक्कों और अभिलेखों की कुछ भूमिका अवश्य रही है, किंतु अधिक महत्त्व ग्रंथों को ही दिया गया है। अब नए-नए तरीकों की ओर ध्यान देना है। हमें एक ओर वैदिक युग और दूसरी ओर चित्रित धूसर मृद्भांड (पी० जी० डब्ल्यू०) तथा अन्य पुरातात्त्विक सामग्रियों के बीच पारस्परिक संबंध स्थापित करना है। इसी तरह, प्रारंभिक पालि ग्रंथों का संबंध उत्तरी काला पालिशदार मृद्भांड (एन० बी० पी० डब्ल्यू ० ) पुरातत्त्व के साथ जोड़ना होगा और, संगम साहित्य से प्राप्त सूचनाओं को उन सूचनाओं के साथ मिलाना है जो प्रायद्वीपीय भारत के आरंभिक महापाषाणीय पुरातत्त्व में मिलती हैं।
पुराणों में दी गई लंबी-लंबी वंशावलियों की अपेक्षा पुरातात्त्विक साक्ष्य को कहीं अधिक मूल्य दिया जाना चाहिए। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार, अयोध्या के राम का काल 2000 ई० पू० के आसपास भले ही मान लें, पर अयोध्या में की गई खुदाई और व्यापक छानबीन से तो यही सिद्ध होता है कि उस काल के आसपास वहाँ कोई बस्ती थी ही नहीं। इसी तरह महाभारत में कृष्ण की भूमिका भले ही महत्त्वपूर्ण हो, पर मथुरा में पाए गए 200 ई० पू० से 300 ई० तक के बीच के अभिलेखों और मूर्तिकला कृतियों से उनके अस्तित्व की पुष्टि नहीं होती है। इसी तरह की कठिनाइयों के कारण महाभारत और रामायण के आधार पर कल्पित महाकाव्य युग (एपिक एज) की धारणा त्यागनी होगी, हालाँकि अतीत में प्राचीन भारत पर लिखी गई लगभग सभी सर्वेक्षण - पुस्तकों में इसे एक अध्याय बनाया गया है। अवश्य ही रामायण और महाभारत दोनों में सामाजिक विकास के विभिन्न चरण ढूँढ़े जा सकते हैं। इसका कारण यह है कि ये महाकाव्य सामाजिक विकास की किसी एक अवस्था के द्योतक नहीं हैं, इनमें अनेक बार परिवर्तन हुए हैं जैसा कि इस अध्याय में पहले बताया जा चुका है।
पौराणिक अनुश्रुतियों की अपेक्षा अभिलेख निश्चय ही अधिक विश्वसनीय हैं, जैसे अनुश्रुति का सहारा सातवाहनों के आरंभ को पीछे ढकेलने में लिया जाता है, जबकि अभिलेखीय आधार पर उनका आरंभकाल ईसा पूर्व पहली सदी है। अभिलेखों में किसी राजा का शासनकाल उसकी विजय और उसका राज्य विस्तार ये बातें मिल सकती हैं, पर साथ ही राज्यतंत्र, समाज, अर्थतंत्र और धर्म के विकास की प्रवृत्तियाँ भी तो दिखाई दे सकती हैं। इसलिए प्रस्तुत पुस्तक में अभिलेखों का सहारा केवल राजनीतिक या धार्मिक इतिहास के प्रसंग में ही नहीं लिया गया है। अभिलेखीय अनुदानपत्रों का महत्त्व केवल वंशावलियों और विजयावलियों के लिए नहीं है, बल्कि और भी विशेष रूप से ऐसी जानकारी के लिए है कि किन-किन नए राज्यों का उदय हुआ और सामाजिक तथा भूमि व्यवस्था में, विशेषत: गुप्तोत्तर काल में क्या-क्या परिवर्तन हुए हैं। इसी तरह सिक्कों का सहारा केवल हिंद-यवनों, शकों, सातवाहनों और कुषाणों के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए ही नहीं लेना है, बल्कि व्यापार और नगरीय जीवन के इतिहास की झलक पाने के लिए भी लिया जाना आवश्यक है।
सारांश यह है कि इतिहास निर्माण के लिए ग्रंथों, सिक्कों, अभिलेखों, पुरातत्त्व आदि से निकली सारी सामग्री का ध्यान से संकलन होना परमावश्यक है। बताया जा चुका है कि इसमें विभिन्न स्रोतों के आपेक्षित महत्त्व की समस्या खड़ी होती है । जैसे, सिक्के, अभिलेख और पुरातत्त्व उन मिथक से अधिक मूल्यवान हैं जो हमें रामायण, महाभारत और पुराणों में मिलते हैं। पौराणिक मिथक प्रचलित मानकों का समर्थन करते हैं, लोकाचार को वैध बताते हैं, और जातियों या अन्य सामाजिक वर्गों में संगठित लोगों के विशेषाधिकारों और अपात्रताओं को न्यायोचित ठहराते हैं, परंतु उनमें वर्णित घटनाओं को यों ही सही नहीं मान लिया जा सकता है। अतीत के प्रचलनों की व्याख्या उनके वर्तमान अवशेषों से, या आदिम जनों के अध्ययन से प्राप्त अंतर्दृष्टि से भी की जा सकती है। कोई भी ठोस ऐतिहासिक पुनर्निर्माण अन्य प्राचीन समाजों में होने वाली हलचल से आँखें मूंद नहीं सकता।